
भारत में वैसे भी spoof
और parody
कॉमिक्स का चलन ना के बराबर रहा है.
भारतीय विचार शैली में इस तरह के मज़ाक ज़्यादा पसंद नहीं किए जाने के पीछे का कारण कुछ समाजशास्त्रियों के अनुसार हमें देर से मिली आज़ादी है और कुछ के मुताबिक हमारे sense of humor
में इस तरह के मजाकों को गंभीरता से न लिया जाना है,
जिसकी वजह से spoof
और parody
को हमेशा क्रियेटिविटी न मान कर किसी established
विषय का माखौल बनाना समझा गया.
हिन्दी साहित्य में व्यंग्य को अलबत्ता काफ़ी ऊंचा स्थान प्राप्त है और स्व.
परसाई,
कृष्ण चन्दर और श्रीलाल शुक्ल जैसी हस्तियों को एक साहित्यकार के तौर पर पूरा सम्मान भी मिलता है.
आज भी हास्य व्यंग्य की परचम संभाले लेखक के.
पी.
सक्सेना (
जिन्होंने कभी कभी parody
भी की है)
को न केवल साहित्य वरन फिल्मी दुनिया में भी एक सम्माननीय स्थान प्राप्त है (
के.
पी.
जी ने आशुतोष गोवारिकर की लगान और जोधा अकबर के संवाद लिखे हैं).
मगर एक समाज में जहाँ कॉमिक्स को कभी बच्चों का मन बहलाने के साधन से ऊपर का दर्जा नहीं मिला और एक ऐसा दौर जहाँ बच्चों के लिए फिल्मों की बातें करना या राजनैतिक चर्चा करना दुश्वार हो भला ऐसे में कोई कॉमिक-
मैगजीन या कॉमिक पैरोडी और स्पूफ्स को ध्यान में रख कर कैसे बनाई जाए?
पश्चिमी देशों में स्पूफ मैगजीन MAD
जहाँ सफलता के नए आयाम गढ़ रही थी हमारे देश में इस विधा की कोई शुरुआत ही होती नहीं नज़र आती थी.
हाँ यदा कदा कुछ फिल्मी पत्रिकाओं या सामाजिक मैगजीन जैसे धर्मयुग में कुछ ऐसे कार्टून्स देखने को मिल जाते थे (
मेरी पुरानी किताबों की पोथी में कुछ कार्टून्स मिलें तो मैं यहाँ धर्मयुग के कार्टून्स ज़रूर पोस्ट करूँगा).
बहरहाल हम बात कर रहे थे स्पूफ कॉमिक्स की तो सन सत्तर के दशक में एक पत्रिका शुरू हुयी दीवाना जो कि सही मानो में कहा जाए तो Mad
का हिन्दी संस्करण कही जा सकती है. Humor
के मामले में ये पत्रिका आज के मायनो में काफ़ी outdated
लग सकती है मगर एक दौर में जब सही मानो में Humor Based Magazines
का अभाव हो,
इसे एक अच्छी शुरुआत माना जा सकता है.
हाल ही में कॉमिक्स को Dedicated
एक शानदार ब्लॉग नज़र आया Comic World जहाँ दीवाना के कुछ मुखपृष्ठ (
जो कि दरअसल MAD Magazine
के Cover Character - Alfred E. Newman
की ही नक़ल थे)
मिले, covers
के साथ साथ कुछ अन्दर के पन्नों की भी झलकियाँ दिखीं जिनमें देखने को मिले art work
को देख कर लगता है हो न हो ये चित्रकार भरत जी हैं,
न केवल चित्रों की स्टाइल भरत जी वाली है बल्कि भाषा और चरित्र भी उनका ही काम लग रहे हैं (
भरत जी ने किंग कॉमिक्स के लिए हंटर शार्क फोर्स नाम की एक सीरीज़ की थी जो कुछ ख़ास नहीं चली बाद में उन्होंने राज कॉमिक्स की पत्रिका Fang
के लिए कुछ काम किया था और Fang
करीब करीब दीवाना का एक Upgraded Version
कही जा सकती है,
इसमें भरत जी ने कुछ कहानियाँ और प्रतियोगिताएं की थी जो काफ़ी spoofy
थी,
साथ ही भरत जी के आने के बाद राज कॉमिक्स ने तीन पैरोडी कॉमिक्स भी की थीं हम आपके हैं भौं भौं,
भाजीघर और छोले सो चित्रशैली लेखनशैली और सोचने के स्टाइल को देखें तो लगता है दीवाना के ये पन्ने शायद भरत जी की ही कलम से निकले थे).
भरत जी का नया काम इस समय मेरे साथ नहीं है शीघ्र ही पोस्ट करने की कोशिश करूँगा.
माफ़ कीजियेगा जब भी मैं कॉमिक्स की बात करता हूँ ज़रा carried away
हो जाता हूँ और मुख्य टॉपिक से हट कर यहाँ वहाँ की बात करने लगता हूँ क्या करुँ कॉमिक्स की दुनिया है ही ऐसी निराली.
खैर दीवाना को वह सफलता हासिल नहीं हुयी जो पश्चिम में MAD
को मिली है.
कारण बहुत सारे हो सकते हैं मगर उनका ज़िक्र यहाँ करना ज़रूरी नहीं.
दीवाना भले ही सफल न रही हो पर पैरोडी और स्पूफ कॉमिक्स के लिए एक रास्ता ज़रूर खोल गई.
इन पत्रिकाओं में लोटपोट का ज़िक्र न हो ऐसा नहीं हो सकता (
लोटपोट के पन्नों पर ही सबसे पहले अवतरित हुए थे चाचा चौधरी और मोटू-
पतलू).
आनेवाले समय में मधुमुस्कान और नन्हेसम्राट (
जो कि सन १९८५ में शुरू हुयी और इसमें पहला ब्रेक मिला था भारतीय कॉमिक्स के सबसे सफल चित्रकथाकार -
अनुपम सिन्हा को)
जैसी हिन्दी पत्रिकाएँ निकली.
जिनमें मधुमुस्कान ने हास्य के लिए स्पूफ और पैरोडी का भरपूर इस्तेमाल किया.
मधुमुस्कान के चरित्र न केवल बार बार फ़िल्म इंडस्ट्री के उदाहरण दिया करते थे बल्कि एक चरित्र फिल्मी रिपोर्टर कलम दास तो ख़ुद फ़िल्म स्टार्स से मिल कर उनके interview
लेने की कोशिश करता था (
ये बात और है कि वह कभी इसमें सफल न हो पाया और हमेशा मालिक साहब के गुस्से का शिकार होता रहा).
कलम दास की रचना की थी प्रख्यात कॉमिक बुक आर्टिस्ट हुसेन जामीन ने,
जिनको फिल्मी कलाकारों के caricatures
करने में बड़ा मज़ा आता था,
उनका एक और चरित्र नन्हा जासूस बबलू जहाँ फ़िल्म कलाकार सचिन का caricature
था वहीँ युवा जासूस बबलू आधारित था युवा सनी देओल पर.
मनोज कॉमिक्स में उनके बनाये पत्र सागर सलीम क्रमशः धर्मेन्द्र और विनोद खन्ना की तरह नज़र आते थे.
हुसेन जामीन पर कभी और लम्बी पोस्ट लिखने का विचार है.
फिलहाल आपके लिए प्रस्तुत हैं हुसेन साहब की कलम से निकली कलम दास की एक दर्द भरी कहानी यहाँ :
साभार : Comic World
नब्बे के दशक में राज कॉमिक्स ने भी Spoofs
और Parodies
में अपना हाथ आजमाया अपनी ब्लैक एंड व्हाइट कॉमिक्स बिलवाले धमकियां दे जायेंगे,
हम आपके हैं भौं भौं,
छोले और अपनी कॉमिक पत्रिका FANG
के साथ.
इसी दशक के अन्तिम वर्षों में आई पत्रिका Definitely Insane,
बेहतरीन लेखन और शानदार Illustrations
से सजी यह मैगजीन अपने शुरूआती दौर में खासी सफल रही मगर MAD
से काफ़ी मिलते जुलते format
की वजह से इसे कुछ कानूनी दिक्कतों का सामना करना पड़ा और कुछ समय में यह पत्रिका बंद हो गई.
मगर अब तक भारतीय जनमानस ने स्पूफ और पैरोडी को गंभीरता से लेना शुरू कर दिया था और ऐसे कई पैरोडी वाले नियमित स्तम्भ फिल्मी पत्रिकाओं में शुरू हो चुके थे (Stardust
में आलिफ सुरती के कार्टून स्पूफ्स काफ़ी चर्चित रहे,
आलिफ मशहूर कार्टूनिस्ट आबिद सुरती जी के सुपुत्र हैं).
टीवी पर भी अब ऐसे कई shows
नज़र आने लगे हैं जिनकी theme
पूरी तरह Spoof Based
होती हैं.
यह तो हुआ चिटठा Spoof /Parody Based
कॉमिक्स पर.
ब्लोगिस्तान में भटकते हुए मुझे मिला यह ब्लॉग - Books ans Comics
जिसपर पोस्ट है Asterix की हिन्दी कॉमिक्स.
पढिये और आनंद लीजिये.
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आलोक