Showing posts with label Hindi. Show all posts
Showing posts with label Hindi. Show all posts

Wednesday, January 27, 2016

"बड़े हो जाओ!" - मोहित शर्मा (ज़हन)

अपनी बच्ची को सनस्क्रीन लोशन लगा कर और उसके हाथ पांव ढक कर भी उसे संतुष्टि नहीं मिली। कहीं कुछ कमी थी...अरे हाँ! हैट तो भूल ही गया। अभी बीमार पड़ जाती बेचारी...गर्दन काली हो जाती सो अलग। उस आदमी को भरी धूप, गलन-कोहरे वाली कड़ी सर्दी या बरसात में भीगना कैसा होता है अच्छी तरह से पता था। ऐसा नहीं था कि वो किसी गरीब या अभागे परिवार में जन्मा था। पर अपने दोस्तों, खेल या कॉमिक्स के चक्कर में वो ऐसे मौसमो में बाहर निकल आता जिनमें वो किसी और बात पर बाहर निकलने की सोचता भी नहीं। ये उसका पागलपन ही था कि जब समाचारपत्र उसके शहर में माइनस डिग्री सेल्सियस पर जमे, कई दशको के न्यूनतम तापमान पर हेडलाइन्स छाप रहे थे, तब बुक स्टाल पर उन्हें अनदेखा करते हुए वह ठिठुरता हुआ उन अखबारों के बीच दबी कॉमिक्स छांट रहा था। या जो भूले बिसरे ही अपनी कॉपी-किताबों पर मुश्किल से कवर चढ़ाता था, वह कुछ ख़ास कॉमिक्स पर ऐसी सावधानी से कवर चढ़ाता था कि दूर से ऐसा लगे की शहर का कोई नामी कलाकार नक्काशी कर रहा हो। या वो जिसे स्कूल में कॉमिक्स का तस्कर, माफिया तक कहा जाता हो। जाने कितने किस्से थे उसके जूनून के, जो औरों को बाहर से देखने पर पागलपन लगता था। "बच्चो वाली चीज़ छोडो, बड़े हो जाओ!" यह वाक्य उसने 11 साल की उम्र में पहली बार सुना। उसने तब खुद को तसल्ली दी की अभी तो वो बच्चा ही है। फिर उसे यह बात अलग-अलग लोगो से सुनने और इसे नज़रअंदाज़ करने की आदत हो गयी। 

समय के साथ जीवन और उसकी प्राथमिकताएं बदली। यकायक व्यवहारिक, वास्तविक दुनिया ने चित्रकथा की स्वप्निल दुनिया को ऐसा धोबी पाट दिया कि कभी जो घर का सबसे ख़ास कोना था वह सबसे उपेक्षित बन गया। उसकी शादी हुयी! पत्नी द्वारा उस कोने की बात करने पर वह कोई ना कोई बहाना बनाकर टाल देता, जैसे वो अबतक अपने घरवालों को टालता आया था। जिसपर अब भी वह ख़ुशी से "बड़े हो जाओ" का ताना सुन लेता था। उसके दिमाग का एक बड़ा हिस्सा व्यवहारिक होकर स्वयं उसे बड़े हो जाने को कह रहा था। जबकि कहीं उसके मन का एक छोटा सा हिस्सा अक्सर नींद से पहले, सपनो में या यूँ ही बचपन, किशोरावस्था में उसके संघर्ष, जूनून की कोई स्मृति ले आता।  वो मन जिसे उसने वर्षो तक इस भुलावे में रखा था कि यही सब कुछ है बाकी दुनिया बाद में। अब मन का छोटा ही सही पर वह हिस्सा ऐसे कैसे हार मान लेता। 


फिर उसके घर एक नन्ही परी, उसकी लड़की का आगमन हुआ। जिसने बिना शर्त पूरे मन (उस छोटे हिस्से को भी) हाईजैक कर लिया। आखिरकार, उसने अपनी हज़ारों कॉमिक्स निकाली। हर कवर को देख कर उसकी कहानी, वर्ष, रचनाकारों के साथ-साथ उस प्रति को पाने का संघर्ष उसके मन में ताज़ा हो गया। जैसे एक बार कमेंटरी में मोहम्मद अज़हरुद्दीन को डिहाइड्रेशन होने की बात बताये जाने पर उसने ही अपने मित्रों को इस बात का मतलब समझाया था.... क्योंकि एक बार डॉक्टर ने यह उसे तब बताया था जब उसके घरवाले उसे कमज़ोरी, चक्कर आने पर पड़ोस में ले गए थे। उसे चक्कर जून की गर्मी में बाहर किस वजह से रहने से आये होंगे यह बताने की ज़रुरत नहीं। 2 किशोर उसके घर आये जिन्हे उसने अपनी कॉमिक्स के गट्ठर सौंपे। बड़े जोश में उसने अपने किस्से, बातें सुनाने शुरू किये पर उनसे बात करने के थोड़ी ही देर में उसे अंदाज़ा हो गया कि समय कितना बदल गया है और दोनों पार्टीज एक दूसरे की बातों से जुड़ नहीं पा रहें है। अंततः उन किशोरों ने विदा ली और दरवाज़े पर उन्हें छोड़ते हुए, मन का वह छोटा हिस्सा जो अबतक रूठा बैठा था, दबी सी आवाज़ में बोला "ख़्याल रखना इनका।"

कुछ महीनों बाद दिनचर्या बदली, काम और ज़िम्मेदारियाँ बढ़ीं। एक दिन पत्नी ने टोका - "इतने चुप-चुप क्यों रहते हों? क्या सोचते रहते हो? इंसान हो मशीन मत बनो! क्या हमेशा से ही ऐसे थे?" 

अच्छा लगा कि फॉर ए चेंज`व्यवहारिक, वास्तविक दुनिया वाले दिमाग को खरी-खोटी सुनने को मिली। पर फ़िर से जीवन की किसी उधेड़बुन को सोचते हुए उसने कहा - " ...बड़ा हो गया हूँ! यही तो सब चाहते थे।" :) 

समाप्त!

#mohitness #mohit_trendster #trendybaba #freelance_talents

Notes: काल्पनिक कहानी, यहाँ बाकी दुनिया को बेकार नहीं कह रहा, बस एक दुनिया छूट जाने का दर्द लिख रहा हूँ जो अक्सर देखता हूँ मित्रों में। Originally posted on Mohitness Blog - http://mohitness.blogspot.in/ Artworks by Mr. Saket Kumar (Ghulam-e-Hind Teaser)

Wednesday, January 8, 2014

यादें गुजरे ज़माने की -२

मैंने व्योमा जी से आग्रह किया और उन्होंने इस छोटे से लेख के साथ-साथ इस कामिक्स को स्कैन करके भी भेजा. इस कामिक्स को पढ़ते वक़्त ज़ेहन में जैसे किसी सिनेमा का दृश्य बन आया. कामिक्स के सारे पात्र जैसे जीवंत हो आँखों के सामने नाचने लगे. वह गोली चली और सीधे काऊ-ब्वाय हैट में छेद बनाते हुए निकल गई. वह बूट पॉलिश करने वाला गरीब बच्चा दीवार सिनेमा के अमिताभ बच्चन से कम नहीं लगा जो बूट पॉलिश करते समय डायलोग मारता था, "मैं फेंके हुए पैसे नहीं उठाता." वही स्वाभिमान उसमें तब दिखा जब वह पुलिस से छुपा कर गधे के पैरों में बूट पॉलिश लगा देता है, और कहानी का पटापेक्ष भी उसी घटना से होती है. फिलहाल यह कामिक्स और यह लेख आपके सामने है. शुक्रगुजार हूँ व्योमा जी का..पिछला लेख पढने के लिए आप इस लिंक पर जा सकते हैं. अथवा व्योमा मिश्रा के लेवल पर भी चटका लगा सकते हैं.
 
आज फ़िर एक  कॉमिक्स हाथ पड़ी, उसी जूनून, उसी जज़बे से एक ही बैठक  में उसी तरह से पढ़ डाली जिस तरह तब पढ़ी थी जब नई-नई, कोरे काग़ज़ और काली स्याही की गंध के साथ पहली बार मेरे हाथ आई थी, कॉमिक्स का   नाम है 'रेगिस्तानी लुटेरे'

कहानी केंद्रित है एक इससे बूढ़े आदमी पर जो बहुत-बहुत बहुत ही अमीर है, उसकी सोने की खान है 'शैतान की आँत'. इस बूढ़े का नाम है जोसिया रिम्फ़ायर और काम है 'शैतान की आँत' से सोना खोदना, उसे अपनी घोड़ागाड़ी पर लादना और उस सोने को बैंक में 'पटक' आना.

इस बूढ़े का दिन का पता होता 'शैतान की आँत' और शाम का होता 'माँ केसिनो' का जुआघर, जिसकी मालकिन उसकी दोस्त होती है. दिन भर पसीना बहाना और शाम को महँगी सिगार के साथ जमकर शराबनोशी करना और करना जी भर कर जुआखोरी.. 'जो' कि ज़िन्दगी में 'भयावह' मोड़ उस वक़्त आता है जब एक 'अविश्वसनीय' चिट्ठी उसे मिलती है, ये चिट्ठी उसकी एकमात्र रिश्तेदार,युवा भतीजी रोज़ी ने भेजी है. इसमें लिखा होता है कि वह अपना शेष जीवन अपने एकमात्र जीवित रिश्तेदार यानि 'जो' के साथ बिताने आ रही है.

'जो' जिसकी सोच है कि आजकल ( लगभग ३० बरस पहले) की लड़कियाँ  बदतमीज़, बदमिजाज़ और बददिमाग़ होती है और वह अपनी ज़िन्दगी में ऐसी कैसी लड़की को नहीं फ़टकने नहीं देगा, परन्तु मजबूर हो जाता है जब 'माँ'  याद दिलाती है वह रोज़ी को बहुत पहले ही साथ रहने का निमंत्रण दे चुका है।

बहरहाल, रोज़ी की मुलाक़ात रिप किर्बी से होती है जो संयोगवश उसी शहर जा रहा होता है। रोज़ी को हवाईअड्डे से लाने के लिए जो को 'माँ' द्वारा ज़बरदस्ती भेजा जाता है। ज़ुए की जमी बाज़ी से जो को उठाना मज़ाक नहीं। घर आने पर जो रोज़ी के आने पर रात्रिभोज देता है और पाता है कि रोज़ी को एक अत्यधिक अनुशासित, संयमी और मर्यादित लड़की के रूप में।  रोज़ी अपने बाबा को सुधारने में जुट जाती है। इस बॉक्स को पढ़कर  आज वो मुस्कराहट आ गयी जो पहले नहीं  आयी थी जिसमें रोज़ी 'जो' को महँगी सिगार, मँहगी शराब के साथ ही जुए से दूर रखती है और रोज़ी के पीठ फ़ेरते ही 'जो' नॉन-स्टॉप पैग पर पैग चढ़ाता चला जाता है वो समय था जब मैं बच्ची थी और एक पक्के पियक्कड़ की तड़प को महसूस नहीं कर पायी थी. मेरे लिए 'जो' सिर्फ़ डर के कारण चोरी से, छिप-छिप के  शराब पीने वाला बूढ़ा आदमी होता है।  आज तो ये इस बॉक्स पर बेसाख्ता हँसी ही छूट पड़ी जब 'जो' किर्बी और 'माँ' के सामने अपना दुखड़ा बयाँ करता है कि 'मेरी भतीजी मुझे न शराब पीने देती है, न सिगार, न जुआ खेलने देती है, न....' और 'माँ' सलाह देती है 'तुम पोलो क्यों नहीं....?' अगला तीर किर्बी मारता है 'बाग़वानी भी एक अच्छा शौक़ है'.... ख़तरनाक रेगिस्तानी 'चूहा' कितना असहाय हो जाता है. इधर बिल्मि के मन में रोज़ी को ले के कुछ है, वरना आज रात चाँद उसे इतना सुंदर क्यूँ लगता भला?

खैर कभी-कभी ये चरित्र बाल-मन में विदेशों सभ्यता के बारे में भी सोचने को मजबूर करते थे. मैं सोचती थी की क्या विदेशों में लड़कियाँ खुले-आम सिगार पीतीं हैं , जब रोज़ी 'जो' के मुहँ से सिगार ले लेती है और 'जो' बड़ी दीदादिलेरी से कहता है "रोज़ी ये क्या? तुम्हें सिगार चाहिए तो माँग लेती मुझसे". उन दिनों बालों में ढेर सारा तेल चुपड़ के फुंदे-वाली दो चोटियाँ बाँधने वाली मेरे जैसी लड़की के लिए इतने बरसों पहले किसी लड़की का सार्वजानिक रूप से सिगार या शराब पीने के बारे में सोचना तक दिल को दहला देता था।

चलिये कहानी पर आते हैं..... 'जो' की दौलत पर निगाह रखनेवाले ड्यूक को अपनी साज़िश को अंजाम देने के लिए रोज़ी एक मोहरे के रूप में नज़र आती है. एक बार जब 'जो' रोज़ी को रेत पर घुड़सवारी के लिए दूर गहरे रेगिस्तान में ले जाता है तब ड्यूक अपने दो साथियों फ्रैंकी और पीटर के साथ उनपर  हमला बोल देता है, ये फ्रैंकी और पीटर वही हैं जो इसी कहानी में 'जो' से मात खा चुके हैं ( पहले पन्ने पर ) पर इस बार 'जो' कुछ नहीं कर पाता क्यूँकि हथियारों की आदत भी 'सुधारने' के चक्कर में रोज़ी उसकी पिस्तौल बिल्मि के हवाले कर आती है, नतीजतन लुटेरे अपने मंसूबों में क़ामयाब हो कर रोज़ी का अपहरण कर लेते हैं  .... ख़तरनाक़ रेगिस्तानी 'चूहा' सचमुच असहाय हो जाता है।

और अब रोल है रिप का जब शुरू होता है दौर फिरौतियों का, रोज़ी के अपराध-बोध का और 'जो' की तड़प का जो अपनी 'सुधारने-वाली' भतीजी को पाने के लिए अपनी सारी दौलत दाँव पर लगाने का माद्दा रखता है। ये वही बूढ़ा रईस है जिसके सामने बैंको के मालिक कहते है 'अगली बार आप इतना सोना और लाये तो हमें ये बैंक ही आपको बेचना पड़ेगा', जिसके बारे में प्रचलित था कि मुसीबत में तेल के मालिक शेख भी 'जो' के पास आते हैं। आज भतीजी के प्रेम में दुनिया का सबसे ग़रीब आदमी बन चुका था।
खैर, जासूस रिप की मदद से रोज़ी मिल जाती है। इस पूरे घटना-क्रम में अहम भूमिका होती है एक बूटपालिश वाले लड़के और एक बूढ़े कुत्ते 'सुल्तान' की।

अंत में दो बड़े नाज़ुक मोड़ आते हैं -
पहला: जब रोज़ी से लिपट के बाबा कहते हैं ' रोज़ी बेटी, तुम जैसा चाहो मुझे सुधार लो।' और रोज़ी "बाबा 'जो' अब मैं ऐसी कोई कोशिश नहीं करूँगी"
दूसरा: जब बूटपॉलिशवाले लड़के टिमोथी को 'जो' पढाई के खर्चे का चेक देते हैं और टिमी कहता है "ओह रिम्फ़ायर साब, कॉलेज में पढ़ने जाना है या उसे खरीदना है ?"

कामिक्स डाउनलोड करने का लिंक

Monday, July 15, 2013

इंडियन कॉमिक्स फैंडम (Indian Comics Fandom Magazine)



इंडियन कॉमिक्स फैंडम (Indian Comics Fandom) एक पत्रिका के रूप में प्रयास है भारतीय कॉमिक परिदृश्य को दिखाने का कॉमिक्स से जुडी ख़बरों, साक्षात्कारो,  कहानियों, चित्रों, आयोजनों, रिपोर्ट्स, लेखों, विश्लेषण आदि द्वारा। वैसे तो काफी पहले से इसको प्रकाशित करने की इच्छा थी पर बात टलती रही। 2010  मे "कॉमिक्स स्टोलोन" नाम से एक पत्रिका का एक अंश आया पर फिर वो भी ठंडे बसते मे गयी। अंततः अक्टूबर 2012 में यह पत्रिका शुरू की और अब तक इसके 6 वॉल्यूम प्रकाशित हो चुके है।

इसका आगामी  सातवा अंश स्थानीय कॉमिक्स स्पेशल है जिसमे भारत की स्थानीय भाषाओँ की कॉमिक्स या अनुवादित कॉमिक्स को कवर किया जायेगा। इस से पहले ऐसे थीम बेस्ड दो वॉल्यूम आये एक इंडिपेंडेन्ट कॉमिक्स कम्पनीज केन्द्रित और एक व्यस्क कॉमिक्स केन्द्रित। अंग्रेजी-हिंदी (और कभी-कभी स्थानीय) भाषाओँ के लेख रहते है इस पत्रिका मे।




Indian Comics Fandom FB Page जहाँ आपको इस फ्री ऑनलाइन पत्रिका से जुडी साड़ी जानकारियाँ और लिंक्स मिल जायेंगे। 

Monday, December 3, 2012

पवित्र गाय मनोरंजन! (Holy Cow Entertainment)


होली काऊ इंटरटेनमेंट, 2011 मे इस कंपनी का  नाम सुना और पता चला इस प्रकाशन के संस्थापक खुद एक नामी कलाकार श्री विवेक गोयल है। हालाँकि, ख़बरें तो 2010 से ही आने लगी थी पर पहले इतने प्रकाशनों का नाम सुनकर आगे काफी समय तक कोई अपडेट न आने पर निराशा होती थी इसलिए कुछ ऐसा सुनने पर अधिक उम्मीद नहीं रखी। पहले विवेक जी से शुरू करता  हूँ, 31 वर्षीय विवेक जी (वैसे अब अगले ही महीने उनका जन्मदिन आ रहा है) के पास कई राष्ट्रीय एवम अंतरराष्ट्रीय कॉमिक प्रकाशनों और कंपनियों मे काम करने का अनुभव है जिनमे प्रमुख है - लेवल 10, राज कॉमिक्स, मूनस्टोन बुक्स, कॉमिक्स इंडिया और अब होली काऊ। साथ ही  उन्होंने अपना शुरुआती पेशेवर दौर स्टार प्लस, कुछ विज्ञापन एजेन्सियों के साथ भी बिताया। 2008 मे जब ये राज कॉमिक्स के लिये काम कर रहे थे तब भी इनपर,  तब के कामो पर ज़ोर देते हुए एक ब्लॉग राज कॉमिक्स की साईट और फ़ोरम्स पर  लिखा था।

कॉमिक्स एक असेम्बली लाइन पद्धति के तहत एक परिकल्पना से होती हुई कहानी-पटकथा-चित्र-स्याही-रंग-शब्द, आदि   सबके साथ लगकर एक पूरा प्रोडक्ट बनती है। अब भरत नेगी जी, अनुपम सिन्हा जी जैसे कलाकार ये सारा काम स्वयं निपटा सकते है जबकि समय की कमी, आदि की वजह से अक्सर इस पद्धति मे क्रमवार कई लोग शामिल रहते है। कई बार चित्रकार, लेखक की शेली, सोच और बहुत सी बातें मेल नहीं खाती जिस वजह से रचनात्मक घर्षण और टकराव होता है। यही प्रमुख वजह थी होली काऊ के अस्तित्व मे आने का। इन बातों पर फिर कभी प्रकाश डालेंगे अभी तो मै  इस पवित्र गाय से इतना भौचक हूँ कि आज इसपर ही लिखता हूँ।  किसी कलाकार द्वारा कॉमिक प्रकाशन खोलना भारत के हिसाब से नयी बात है जिसके लिए मै  विवेक गोयल की तारीफ़ करता हूँ।

होली काऊ की पहली कॉमिक वेयरहाउस मई 2011 मे प्रकाशित हुई जिसमे 3 अलग कहानियाँ थी।  फिर बहुचर्चित 7 कॉमिक्स वाली रावाणयन सीरीज़ आई जिसमे कुछ नए दृष्टिकोणों से रामायण की महागाथा को दिखाया गया। जिसको काफी मीडिया कवरेज मिली. इस सीरीज़ के ख़त्म होने से पहले ही उनकी दूसरी मुख्य सीरीज़ अघोरी सितंबर 2012 से शुरू हुई और अक्टूबर मे ही उसका दूसरा भाग भी प्रकाशित हो चुका है। सीरीज़ का प्रमोशन एक छोटी मुफ्त कॉमिक  अघोरी (00) और यूट्यूब पर एक मोशन कॉमिक ट्रेलर से किया गया। साथ ही होली काऊ इंटरटेनमेंट लगातार भारतीय कॉमिक कोन और स्थानीय पुस्तक मेलो मे हिस्सा लेती रही है। इतने कम समय मे कॉमिक्स के लिए तत्कालीन भारत जैसे बाज़ार मे इतने अनुशासन के साथ लगातार अच्छी कॉमिक्स निकलना किसी अजूबे से कम नहीं। हालाँकि, अभी पेजों की संख्या, कॉमिक्स का दाम, कॉमिक्स मिलने के सीमित साधन जो अभी तक मुख्यतः ऑनलाइन है, कुछ बातें है जिनपर ध्यान दिया जाना चाहिए। इनसे जुड़े  प्रमुख कथाकार और कलाकार है - विजयेन्द्र मोहंती, राम वी, गौरव श्रीवास्तव, योगेश, श्वेता तनेजा, अंकुर आमरे। 

होली काऊ के आगामी आकर्षण है। मुझे लगता है ये प्रकाशन निकट भविष्य मे लोकप्रिय होगा।


*) - रावाणयन ( समापन भाग, विशेषांक)

*) - अघोरी (भाग 3) 


*) -  स्कल रोज़री (ग्राफ़िक नोवल)


*) - सेरेंगेटी स्ट्राइप्स सीरीज़ 


*) - देट मैन सोलोमन 


*) - प्रोज़ेक्ट शोकेस


Website: http://www.holycow.in/


Vivek Goel (Official Page): http://www.facebook.com/vivekart


Vivek & Ram (Mumbai Film and Comic Con, October 2012)