मैंने व्योमा जी से आग्रह किया और उन्होंने इस छोटे से लेख के साथ-साथ इस कामिक्स को स्कैन करके भी भेजा. इस कामिक्स को पढ़ते वक़्त ज़ेहन में जैसे किसी सिनेमा का दृश्य बन आया. कामिक्स के सारे पात्र जैसे जीवंत हो आँखों के सामने नाचने लगे. वह गोली चली और सीधे काऊ-ब्वाय हैट में छेद बनाते हुए निकल गई. वह बूट पॉलिश करने वाला गरीब बच्चा दीवार सिनेमा के अमिताभ बच्चन से कम नहीं लगा जो बूट पॉलिश करते समय डायलोग मारता था, "मैं फेंके हुए पैसे नहीं उठाता." वही स्वाभिमान उसमें तब दिखा जब वह पुलिस से छुपा कर गधे के पैरों में बूट पॉलिश लगा देता है, और कहानी का पटापेक्ष भी उसी घटना से होती है. फिलहाल यह कामिक्स और यह लेख आपके सामने है. शुक्रगुजार हूँ व्योमा जी का..पिछला लेख पढने के लिए आप इस लिंक पर जा सकते हैं. अथवा व्योमा मिश्रा के लेवल पर भी चटका लगा सकते हैं.
कहानी केंद्रित है एक इससे बूढ़े आदमी पर जो बहुत-बहुत बहुत ही अमीर है, उसकी सोने की खान है 'शैतान की आँत'. इस बूढ़े का नाम है जोसिया रिम्फ़ायर और काम है 'शैतान की आँत' से सोना खोदना, उसे अपनी घोड़ागाड़ी पर लादना और उस सोने को बैंक में 'पटक' आना.
इस बूढ़े का दिन का पता होता 'शैतान की आँत' और शाम का होता 'माँ केसिनो' का जुआघर, जिसकी मालकिन उसकी दोस्त होती है. दिन भर पसीना बहाना और शाम को महँगी सिगार के साथ जमकर शराबनोशी करना और करना जी भर कर जुआखोरी.. 'जो' कि ज़िन्दगी में 'भयावह' मोड़ उस वक़्त आता है जब एक 'अविश्वसनीय' चिट्ठी उसे मिलती है, ये चिट्ठी उसकी एकमात्र रिश्तेदार,युवा भतीजी रोज़ी ने भेजी है. इसमें लिखा होता है कि वह अपना शेष जीवन अपने एकमात्र जीवित रिश्तेदार यानि 'जो' के साथ बिताने आ रही है.
'जो' जिसकी सोच है कि आजकल ( लगभग ३० बरस पहले) की लड़कियाँ बदतमीज़, बदमिजाज़ और बददिमाग़ होती है और वह अपनी ज़िन्दगी में ऐसी कैसी लड़की को नहीं फ़टकने नहीं देगा, परन्तु मजबूर हो जाता है जब 'माँ' याद दिलाती है वह रोज़ी को बहुत पहले ही साथ रहने का निमंत्रण दे चुका है।
बहरहाल, रोज़ी की मुलाक़ात रिप किर्बी से होती है जो संयोगवश उसी शहर जा रहा होता है। रोज़ी को हवाईअड्डे से लाने के लिए जो को 'माँ' द्वारा ज़बरदस्ती भेजा जाता है। ज़ुए की जमी बाज़ी से जो को उठाना मज़ाक नहीं। घर आने पर जो रोज़ी के आने पर रात्रिभोज देता है और पाता है कि रोज़ी को एक अत्यधिक अनुशासित, संयमी और मर्यादित लड़की के रूप में। रोज़ी अपने बाबा को सुधारने में जुट जाती है। इस बॉक्स को पढ़कर आज वो मुस्कराहट आ गयी जो पहले नहीं आयी थी जिसमें रोज़ी 'जो' को महँगी सिगार, मँहगी शराब के साथ ही जुए से दूर रखती है और रोज़ी के पीठ फ़ेरते ही 'जो' नॉन-स्टॉप पैग पर पैग चढ़ाता चला जाता है वो समय था जब मैं बच्ची थी और एक पक्के पियक्कड़ की तड़प को महसूस नहीं कर पायी थी. मेरे लिए 'जो' सिर्फ़ डर के कारण चोरी से, छिप-छिप के शराब पीने वाला बूढ़ा आदमी होता है। आज तो ये इस बॉक्स पर बेसाख्ता हँसी ही छूट पड़ी जब 'जो' किर्बी और 'माँ' के सामने अपना दुखड़ा बयाँ करता है कि 'मेरी भतीजी मुझे न शराब पीने देती है, न सिगार, न जुआ खेलने देती है, न....' और 'माँ' सलाह देती है 'तुम पोलो क्यों नहीं....?' अगला तीर किर्बी मारता है 'बाग़वानी भी एक अच्छा शौक़ है'.... ख़तरनाक रेगिस्तानी 'चूहा' कितना असहाय हो जाता है. इधर बिल्मि के मन में रोज़ी को ले के कुछ है, वरना आज रात चाँद उसे इतना सुंदर क्यूँ लगता भला?
खैर कभी-कभी ये चरित्र बाल-मन में विदेशों सभ्यता के बारे में भी सोचने को मजबूर करते थे. मैं सोचती थी की क्या विदेशों में लड़कियाँ खुले-आम सिगार पीतीं हैं , जब रोज़ी 'जो' के मुहँ से सिगार ले लेती है और 'जो' बड़ी दीदादिलेरी से कहता है "रोज़ी ये क्या? तुम्हें सिगार चाहिए तो माँग लेती मुझसे". उन दिनों बालों में ढेर सारा तेल चुपड़ के फुंदे-वाली दो चोटियाँ बाँधने वाली मेरे जैसी लड़की के लिए इतने बरसों पहले किसी लड़की का सार्वजानिक रूप से सिगार या शराब पीने के बारे में सोचना तक दिल को दहला देता था।
चलिये कहानी पर आते हैं..... 'जो' की दौलत पर निगाह रखनेवाले ड्यूक को अपनी साज़िश को अंजाम देने के लिए रोज़ी एक मोहरे के रूप में नज़र आती है. एक बार जब 'जो' रोज़ी को रेत पर घुड़सवारी के लिए दूर गहरे रेगिस्तान में ले जाता है तब ड्यूक अपने दो साथियों फ्रैंकी और पीटर के साथ उनपर हमला बोल देता है, ये फ्रैंकी और पीटर वही हैं जो इसी कहानी में 'जो' से मात खा चुके हैं ( पहले पन्ने पर ) पर इस बार 'जो' कुछ नहीं कर पाता क्यूँकि हथियारों की आदत भी 'सुधारने' के चक्कर में रोज़ी उसकी पिस्तौल बिल्मि के हवाले कर आती है, नतीजतन लुटेरे अपने मंसूबों में क़ामयाब हो कर रोज़ी का अपहरण कर लेते हैं .... ख़तरनाक़ रेगिस्तानी 'चूहा' सचमुच असहाय हो जाता है।
और अब रोल है रिप का जब शुरू होता है दौर फिरौतियों का, रोज़ी के अपराध-बोध का और 'जो' की तड़प का जो अपनी 'सुधारने-वाली' भतीजी को पाने के लिए अपनी सारी दौलत दाँव पर लगाने का माद्दा रखता है। ये वही बूढ़ा रईस है जिसके सामने बैंको के मालिक कहते है 'अगली बार आप इतना सोना और लाये तो हमें ये बैंक ही आपको बेचना पड़ेगा', जिसके बारे में प्रचलित था कि मुसीबत में तेल के मालिक शेख भी 'जो' के पास आते हैं। आज भतीजी के प्रेम में दुनिया का सबसे ग़रीब आदमी बन चुका था।
खैर, जासूस रिप की मदद से रोज़ी मिल जाती है। इस पूरे घटना-क्रम में अहम भूमिका होती है एक बूटपालिश वाले लड़के और एक बूढ़े कुत्ते 'सुल्तान' की।
अंत में दो बड़े नाज़ुक मोड़ आते हैं -
पहला: जब रोज़ी से लिपट के बाबा कहते हैं ' रोज़ी बेटी, तुम जैसा चाहो मुझे सुधार लो।' और रोज़ी "बाबा 'जो' अब मैं ऐसी कोई कोशिश नहीं करूँगी"
दूसरा: जब बूटपॉलिशवाले लड़के टिमोथी को 'जो' पढाई के खर्चे का चेक देते हैं और टिमी कहता है "ओह रिम्फ़ायर साब, कॉलेज में पढ़ने जाना है या उसे खरीदना है ?"
कामिक्स डाउनलोड करने का लिंक
Nice keep it up
ReplyDeletei love to see those comics and write ups
शुक्रिया मित्र
DeleteAmazing talent, beautiful creation
Deletethnx Mohit Singh jee... :)
Deleteये महज़ कॉमिक्स नहीं होते थे बल्कि बालमन के लिये दुनिया को जानने समझने का एक जरिया थे.
ReplyDeleteउस दौर में जब हम जैसे लोग बचपन से किशोरावस्था की ओर कदम बढ़ा रहे थे और टेलीविजन उपलब्ध नहीं था, तब इन चरित्रों और कथानकों का जादू एकदम सर चढ़कर बोलता था.
वास्तव में इस कहानियों को बार-बार पढ़ा जा सकता है बगैर इस बात की परवाह किये कि अब आप उम्र के किस दशक में हैं. उद्देश्यपूर्ण मनोरंजन का सटीक उदाहरण हैं ये कहानियाँ.
बहुत ही बढ़िया लिखा है आपने भी.
सही TPH जी...ये एक अलहदा ज़मीन हुआ करती थी...
Deletesahi hai
ReplyDelete:) Udan Tashtari जी....
Deleteकल व्योमा जी से गुफ़्तगू हुई फ़ेसबुक पर तो इस अद्भुत पोस्ट के बारे में ज्ञात हुआ । नौस्टालजिक .... इंद्रजाल कॉमिक्स का जादू तो शायद मरते दम तक हम जैसों के होठों पर ऊह आह बन कर जीवित रहेगा । शुक्रिया व्योमा जी इन दोनों पोस्टों तक खींच लाने के लिये ।
ReplyDeletethanks Gautam jee
Deleteधन्यवाद् TPH जी....
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