अब एक अंधे को क्या चैये, बस दो ऑंखें.. उस समय मैं बिक्रमगंज नामक शहर में रहता था, जो बिहार के रोहतास(सासाराम) जिले में अवस्थित है.. वहाँ राज कामिक्स मिलता नहीं था और मैं अपने अमूल्य सौ रूपये डायमंड कामिक्स के चाचा चौधरी जैसे कामिक्स पर खर्च करने को तैयार नहीं था.. अब विकट स्थिति जान पड़ी.. करें तो क्या करें.. बस संभाल कर रख लिया वह सौ रूपया, सोचा "केकयी" जैसे ही समय आने पर इसका उपयोग करूँगा और बेचारे पापा मना भी नहीं कर पायेंगे..
फिर वो दिन भी आया जब पापाजी को किसी मीटिंग में डेहरी-ऑन-सोन जाना था और साथ में हम भी लटक लिए.. पापाजी गए मीटिंग के अंदर और हम उनके बॉडीगार्ड साहब को लेकर पहुँच गए वहाँ के रेलवे स्टेशन.. ध्रुव या नागराज का कोई कामिक्स तो मिल ही जायेगा, इसी उम्मीद में.. और वहाँ से ख़रीदे तीन कामिक्स.. तीनो के तीनो ही ध्रुव के..
- "स्वर्ग कि तबाही"
- "दलदल" और
- "ब्लैक कैट"
जिसमे से स्वर्ग कि तबाही ध्रुव कि एक दूसरी कामिक्स का आखरी भाग था, उसके पहले भाग का नाम आदमखोरों का स्वर्ग था.. इन दोनों कामिक्स को मैं पहले भी आपके सामने ला चुका हूँ जिसका लिंक उन कामिक्स के नाम के साथ दे रहा है मैंने.. Link Deleted on request of Sanjay Gupta Ji..
दूसरी कामिक्स "दलदल" अपने आप में पूरी कामिक्स थी.. आगे पीछे कोई भी रोवनहार नहीं था उस कामिक्स का, मतलब कोई दूसरा भाग नहीं था.. :)
और तीसरी कामिक्स "ब्लैक कैट" के साथ भारी पंगा हो गया.. लेते समय मैंने देखा नहीं और पढ़ने पर पता चला कि यह तो पहला भाग है.. अब दूसरा भाग कहाँ से आये.. भारी लोचा.. अब तो पटना आयें तो यहाँ पता करे उसके दूसरे भाग के बारे में.. डेहरी-ऑन सोन जाए तो फिर वही चक्कर.. पटना के पुस्तक मेला में भी मेरे घूमने कि वजह सिर्फ यही कामिक्स थी(उस जमाने में साहित्य भगोरों में मेरा नाम अव्वल हुआ करता था सो किसी साहित्यिक पुस्तक मैं खरीदने से रहा.. वैसे मेरा मानना है कि कामिक्स भी साहित्य के ही किसी श्रेणी का हिस्सा है :)).. "रोबो का प्रतिशोध" नाम था उसके दूसरे भाग का.. सबसे बड़ी मुसीबत तो यह कि पहले भाग में ध्रुव को बुरी तरह घायल दिखा दिया था.. मन में सवाल यह नहीं था कि वह बचा या नहीं, क्योंकि उसकी नई कामिक्स लगातार आ रही थी(ही ही ही :D).. सवाल यह था कि वह बचा तो कैसे बचा..
खैर एक दिन ब्रह्म देव मुझ पर भी प्रसन्न हुए और मेरी मुह मांगी मुराद पूरी हो गई.. मुझे यह कामिक्स मिली पटना जंक्शन के पास वाले एक बुक स्टोल पर(मीठापुर सब्जी मार्केट के कोर्नर वाला बुक स्टोर).. और पढकर दिल को उतनी ही ठंढक मिली जितनी कि एक बच्चे को कुत्ते कि पूंछ खिंच कर मिलती है(ही ही ही :D)..
फिलहाल तो आप भी इसे पढ़िए.. :)
चूंकि इसमें अपनी कुछ यादें भी जुडी हैं सो सोचता हूँ कि इसे अपने दूसरे ब्लॉग पर भी डाला जाए.. :) शायद तीन-चार दिन बाद..
:) बहुत प्यारा किस्सा.. वैसे हमे भी काफ़ी कम कामिक्स खरीदने को मिलती थी.. शिक्षाप्रद चीज़े कुछ ज्यादा मिलती थी..
ReplyDeleteलेकिन जब मेरे दोस्ट कामिक्स की दुकान लगाते थे तो हम भी एक दो अपनी कामिक्स रखवाकर उनकी फ़्री मे पढा करते थे..
वैसे इस बात पर अभी अभी ध्यान गया कि पहले आकाशवाणी इतना क्यू बोलती थी.. हर गलत मौके पर बोल उठती थी:D
सही है यह कॉमिकन संसार!!
ReplyDeletebachpan ke din yaad aa gaye ye sab dekhkar
ReplyDeleteकामिक्स के मामले में मुझमे तुम्हारे जितना तो पागलपन नहीं था लेकीन ध्रुव तो मेरा भी सबसे ज्यादा पसंदीदा कामिक्स रहा है...
ReplyDeleteऔर सही कह रहे हो ..कामिक्स भी साहित्य के ही किसी श्रेणी का हिस्सा है
अच्छा, पटना का पुस्तक मेला को बहुत ही ज्यादा miss करता हूँ भाई...वैसे हम तो वहां कामिक्स के लिए नहीं जाते थे :P हाँ कहानियों की किताबें के लिए जरूर जाते थे और जब तक पटना में रहे तब तक गए...
मुझे अब भी याद है आखरी बार 2002 में जब गया था पुस्तक मेला तो अटल बिहारी वाजपेयी की "मेरी इक्यावन कवितायेँ" किताब मैंने ली थी वहां से..
खैर बहुत बहुत मजा आया ये मस्त पोस्ट पढ़ के
भैया हम इतने शोभाग्य शाली नहीं थे कि कभी पापा सो रूपये पकड़ाते और कहते जा बेटा जो तेरी मर्जी हो उसपे खर्च कर हम तो भैया पिट पिटा के कॉमिक्स पढ़ते रहे हैं.जेब खर्च भी बच्चों को चाहिए ये तो हमारे गावं में कोई सोचता तक नहीं था तो बड़ी मुश्किल से 2 रूपये का इन्तेजाम कर कॉमिक्स किराये पे लेके पढ़ी जाती थी,नहीं तो कुछ मेहरबान दोस्तों के मेहरबानी से ही ज्यादतर कॉमिक्स पढ़ी है बचपन में और पढने और कॉमिक्स गलत हाथ में (मतलब पापा मम्मी ) क हाथ में ना पड़े इसकी कहानी तो अलग ही है.आहार उसके बारे में लिखूं तो दो चार महाभारत तो लिख ही सकते हैं..
ReplyDeleteहाँ एक बात कि मुझे हमेश शिकायत रहती थी की कॉमिक्स पार्ट में ना हो.पार्ट में हूवा तो दिमाग का किम बनना तयं था अब सोचते रहो इसके आगे क्या होगा...पार्ट का तो पता नहीं कब मिलेगा अपने को पढने को ....दुकान पे दिख भी जाता उसका पार्ट तो हसरत से देखने के अलवान कोई चारा नहीं था .क्यों की दो रूपये अपने pass कब honge ise तो कोई jyotsi भी नहीं bata sakta था...
लगे रहो पीडी!
ReplyDeleteजो सेवा हम जैसे संतों की कर रहे हो उसका मीठा फल ज़रूर मिलेगा तुम्हें।
बचपन की अधूरी प्यास जो तृप्त तो अभी भी खैर नहीं हो पाएगी, मगर थोड़ी बहुत बुझेगी ज़रूर।
बचपन को जिलाए रखने का शुक्रिया, बहुत-बहुत; अपने अन्दर भी और हमारे अन्दर भी।
सौ रूपये की किस्मत तो कहां थी, अलबत्ता कभी-कभार दो रूपये ही मिल जाते तो उनकी कामिक्स ही किराये पर लाकर पढी जाती थी। चंपक और नंदन तो पापा ही कभी लाकर दे दिया करते थे।
ReplyDeleteरोबो का प्रतिशोध देने के लिये हार्दिक धन्यवाद
प्रणाम स्वीकार करें
What a crappy background! It has become impossible to read the blog. Please revert back to the old template. Otherwise the very purpose of spending time to share your thoughts will go waste.
ReplyDeletethnks!
वाह! क्या मजेदार अनुभव बांटा आपने. ये दीवानगी तो मुझमे भी रही है....बस इसी उधेड़बुन मे रहता था की किसी तरह 8 रुपये बच जाए तो कम से कम नयी वाली पतली कॉमिक खरीद लूँ और 8 ना सही तो 4 जुड़ जाए तो पुरानी कॉमिक हाफ रेट मे ले लूँ...
ReplyDeleteVery gud initiative ans write up too!
ReplyDeleteBachpan ki yaad gayi sach mein..Dhruv and Nagraj to apane bhi childhood Heros rahe hai..and I was as crazy as you seem to be about them.
Keep up the gud wor going!